राजस्थानी भाषा सूं अळगाव
में हिन्दी रो ई घाटो
-ओम पुरोहित 'कागद’
भारत के संविधान की प्रस्तावना और भाग-3 के अनुच्छेद 344 व 351 को मिलाकर पढ़ा जाए तो मालूम होगा कि हिन्दी संघ सरकार की भाषा है और वह जबरन किसी प्रांत की भाषा नहीं बन सकती। प्रदेश की विधानसभा इसके लिए संकल्प पारित करके संघ सरकार को भेजे, यह तभी संभव है। हिन्दी के विकास के लिए आठवीं अनुसूची में शामिल और जो शामिल न भी हैं उन्हें साथ लेकर चलना पड़ेगा। हिन्दी भाषा के विकास के लिए संविधान के भाग ङ्गङ्कढ्ढढ्ढ के अध्याय ढ्ढङ्क तथा अनुच्छेद 351 में इस संबंध में साफ लिखा हुआ है कि 'संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिन्दी भाषा का विस्तार तथा उसका विकास करे जिस से वह भारत की प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिन्दुस्तानी में और आठवीं अनुसूची में शामिल भारत की अन्य भाषाओं में आए रूप, शैली और पदों को आत्मसात करते हुए और जहां जरूरी या वांछनीय हो वहां उसके शब्द भंडार के लिए मुख्य रूप से संस्कृत और शेष भाषाओं से शब्द लेकर उस की समृद्धि सुनिश्चित करे|
संविधान की इस मंशा से साफ है कि किसी राज्य की कोई भाषा क्षीण न हो अर हिन्दी का भी वर्धन हो। इस से यह भी साफ है कि हिंदी किसी राज्य की भाषा नहीं है, पर बनाई जानी है। संविधान की इस भावना को राजस्थान के लोगों ने स्वीकार किया। ठेठ राजस्थानी लेखकों ने राजस्थानी के साथ-साथ हिन्दी में भी खूब लिखा। इनमें गणेशी लाल व्यास 'उस्तादÓ, विजयदान देथा, मेघराज मुकुल, सत्यप्रकाश जोशी, तारा प्रकाश जोशी, हरीश भादाणी, नंद भारद्वाज, चंद्रप्रकाश देवळ, हबीब कैफी, सांवर दईया, मोहन आलोक, मालचंद तिवाड़ी, अर्जुनदेव चारण, करणीदान बारहठ जैसे अनेक विख्यात रचनाकार हैं। दूसरी ओर देखें तो राजस्थान में रहने वाले या अन्य प्रांतों से आकर राज की हाजरी बजाकर राजस्थान की बाजरी खाने और पचाने वाले हिन्दी लेखकों ने राजस्थानी भाषा में एक पक्ति तक नहीं लिखी और न ही यहां की भाषा और संस्कृति को मन से स्वीकार किया। उलटे उन्होंने राजस्थानी में लिखने वालों को धिक्कारा कि 'राजस्थानी कोई भाषा नहीं, राजस्थानी में लिखना आत्महत्या के समान है। राजस्थानी में लिखे का कोई भविष्य नहीं है। उन्होंने इस तरह के हेय शब्द बोल-लिखकर राजस्थानी लेखकों में हीनता भरने की कवायद ही की।
भारत का संविधान बनते वक्त पंडित जवाहरलाल नेहरू के नजदीकी मित्र और पूर्व मुखमंत्री स्वर्गीय जयनारायण व्यास मात्र अकेले राजस्थानी थे, जिन्होंने राजस्थानी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करवाने हेतु बहुत प्रयास किए, मगर तत्कालिक गृह मंत्री सरदार पटेल ने उनकी एक न चलने दी। नेहरू और पटेल की जगजानी अनबन और नेहरू और व्यास की निकटता के चलते राजस्थानी भाषा आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं हो सकी, परन्तु उस वक्त आश्वासन दिया गया कि जब हिन्दी अपने पैरों पर खड़ी हो जाएगी, तब राजस्थानी को आठवीं अनुसूची में शामिल कर लिया जाएगा। उस वक्त राजस्थान को तोडऩे के प्रयास भी किए गए। उत्तरप्रदेश से लगते ब्रज क्षेत्र को राजस्थान में शामिल किया गया तो राजस्थानी की बोली मालवी के क्षेत्र को मध्यप्रदेश में। इसी भांति माउंट आबू तक के ठेठ राजस्थानी इलाके को गुजरात में शामिल करने की कवायद की गई, परन्तु यह पार नहीं पड़ी। यदि माउंट आबू हाथों से निकल जाता तो 'मोर बोलै ओ आबू रै पा'ड़ा में लोकगीत का गुमेज राजस्थानी न पाल सकते। ऐसे ही धूर्त लोग आज फिर राजस्थानियों को नकार रहे हैं। राजस्थान में ही राजस्थानी की खिलाफत करते हैं। ये लोग राज के ओहदे पर बैठ राजस्थानियों की जीभ कतरने का हीन कर्म करते हैं। खासकर बड़े शहरों में रहने वाले ये राजस्थानी विरोधी लोग नहीं जानते कि गांवों में हिन्दी नहीं है। यदि भरोसा न हो तो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर प्रसारित होने वाली रपटों में घटनाओं पर ग्रामीणों की बाइट सुनलें। उनके हृदय में स्वत: ही उजाला हो जाएगा।
आज राजस्थानी अगर अपने बालकों के लिए प्राथमिक शिक्षा राजस्थानी भाषा में दिए जाने की मांग सविधान के अनुच्छेद 350 अ और तीसरी भाषा के रूप में राजस्थानी पढ़ाने की मांग अनुच्छेद 345 के अन्तर्गत करते हैं तो राष्ट्रद्रोही क्यों गिने जाते हैं? उलटे वे लोग राष्ट्र विरोधी घोषित होने चाहिएं जो संविधान के पेटे मिले हुए इस हक की खिलाफत करते हैं। अपने बालकों को प्राथमिक शिक्षा राजस्थानी भाषा में दिलवाना राजस्थानियों का संविधान प्रदत्त मूल अधिकार है और यह प्राकृतिक न्याय भी है। समस्त संसार जानता है कि मां की गोदी में खेलकर बालक पांच बरसों में अपनी मातृभाषा के बीस हजार से अधिक शब्द सीख लेता है और उसी के बल पर अन्य भाषाएं सीख सकता है। यदि राजस्थानी बालकों को उनकी मातृभाषा से अलग रखा जाएगा तो हिन्दी का ही नुकसान होगा। आज तक राजस्थान के विद्यार्थी हिन्दी और अंग्रेजी भाषा में हीन हैं तो उसके मूल में यही कारण है।
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